कानपुर बार एसोसियेशन के चुनाव को लेकर कई पूर्व विद्वान पदाधिकारी इन दिनों फेसबुक, व्हाट्सअप पर सक्रिय है। राजनेताओं की तरह अपने अपने तरीके से हम सबको भोलाभाला, अज्ञानी, मतदाता मानकर बता रहे है कि ” अपने बीच कुछ जातियो के ठेकेदार पैदा हो गये है........, दोस्तों आज कचहरी का चुनाव राजनीति के लोग लड़ा रहे है........, बार एसोसियेशन के चुनाव में........ माफिया, कालाधन एवं गुण्डातत्वों को नजरंदाज करें........, मताधिकार हमारा बहुमूल्य प्रजातान्त्रिक अस्त्र है जिसका प्रयोग विचारों की गहराई के पश्चात करना उचित होगा......., किसी ने कहा है कि उन्हें न चुनों जो लाखों नही, पचासों लाखों खर्च कर, हमें, आपको खरीदकर हम पर शासन करना चाह रहे है......., बार की गरिमा, पद की गरिमा से ही अधिवक्ता समाज की गरिमा स्थापित हो सकेगी। इस प्रकार के सुभाषित पढ़कर अब हममें से किसी के भी मन में कोई उत्साह नही जगता। हम सब जानते है कि वर्ष प्रतिवर्ष चुनाव प्रचार को महँगा बनाकर कानपुर बार एसोसियेशन को आम अधिवक्ताओं की सहज पहुँच से कोसो दूर कर दिया गया है। कुछ ही लोग है, जो चुनाव लड़ते और लड़ाते है। कचहरी को लोकतन्त्र प्रापर्टी डीलरों के चंगुल में है। आज एक सामान्य अधिवक्ता महँगे चुनाव खर्च के कारण चुनाव लड़ने के बारे में सोच भी नही सकता। विभिन्न पदों को सुशोभित कर चुके कई जुझारू मित्र इस चुनाव में भी प्रत्याशी है। उन्हें अपने पूर्व पदाधिकारी काल का उदाहरण देकर बताना चाहिए कि उनका पूर्व कार्यकाल उनके प्रतिद्वन्दी पदाधिकारी से क्यों कर बेहतर है। चुनाव खर्च को कम करने, सामूहिक सदस्यता शुल्क की अदायगी को हतोत्साहित करने, चुनाव में प्रापर्टी डीलरों के बढ़ते प्रभाव को खत्म करने, युवा अधिवक्ताओं के लिए शैक्षिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने और लाइब्रेरी का बजट बढ़ाने के लिए उन्होंने अपने पूर्व कार्यकाल में क्या प्रयास किये थे ? हम सब जानते है कि किसी ने अपने पदाधिकारी रहने के दौरान इस दिशा में कोई काम नही किया इसलिए उनसे आगामी कार्यकाल में भी सकारात्मक कामों की अपेक्षा करना खुद को धोखा देना होगा। अपने एक वरिष्ठ सम्मानीय साथी ने कानपुर बार एसोसियेशन में शैक्षिक गतिविधियों को संचालित करने के लिए अमेरिका से कुछ डालर भेजे है परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि आज तक अमेरिका से भेजे गये इन डालरों को अपने विद्वान पदाधिकारी नगदीकृत नही करा सके है और इसी कारण निराश होकर उन्होंने दुबारा पैसा नही भेजा। अच्छी तरह समझ लो, किसी भी व्यक्ति के जीवन में जब हश्र का दिन आता है, तब उससे यह नही पूँछा जाता कि आप क्या पढ़ते थे ? किस तरह की बातें किया करते थे ? बल्कि पूँछा जाता है कि जब अवसर मिला तब आपने क्या किया ?
Friday, 29 September 2017
Thursday, 28 September 2017
सांसद जी कहाँ गया आपका जुझारूपन
सांसद जी कहाँ गया आपका जुझारूपन बी एच यू मे छात्राओं पर लाठीचार्ज, इसके पूर्व लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों की गिरफ्तारी, गोरखपुर मे बच्चो की दर्दनाक मौत जैसे ज्वलंत मुद्दों पर सांसद या विधायक के नाते आपका मौन हम सबके लिये दुखदायी है। सांसद या विधायक होने के पहले आप गली मुहल्ले के साधारण मुद्दों पर स्थानीय प्रशासन को नाको चने चबवा दिय़ा करते थे। अब आप किसी दुसरी दुनियां मे चले गये है क्या? या सत्ता के गलियारों ने आपके जुझारूपन को गुलामी मे बदल दिया है ।
भाई आप हम सबके आदर्श हो। आप सांसद सेठ गोविन्ददास, डाकटर राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये, जार्ज फर्नांडीज, एस एम बनर्जी, अटल बिहारी वाजपेयी, चन्द्र शेखर, जयोतिरमय बसु, सोमनाथ चटर्जी जैसी महान विभूतियों के वारिस हो। आप पर देश को आगे ले जाने का महान दायित्व है लेकिन आप तो आदरणीय मनमोहन सिंह जी की तरह मौनव्रत रखे हुये हो। संसद मे केवल हाँ का बटन दबाते हो, बोलते कुछ हो नहीं?
हम आपको याद दिलायें, सेठ गोविन्ददास ने हिन्दी के मुद्दे पर अपनी ही पार्टी के खिलाफ मतदान किया था। रवि राय ने लोकसभा अध्यक्ष के नाते तत्कालीन मंत्री विद्या चरण शुक्ल को संसद के लिए अपरिचित घोषित करने का नोटिस दिया था। मधु लिमये ने लोकसभा का कार्य काल पाँच वर्ष से छ वर्ष किये जाने के विरोध मे लोकसभा से त्याग पत्र दे दिया था। चन्द्र शेखर जी ने अपनी ही पार्टी की प्रधान मंत्री को चेताया था, जयप्रकाश नारायण सन्त हैं, उनसे मत टकराओ।
भाई आप सब भी संसद सदस्य हो, कुछ बोलते क्यो नहीं? आम आदमी परेशान है, बेरोजगारी बढ रही है, छोटे मझोले उद्योग धन्धे नोट बन्दी खा गई, गाँव घर के कारोबारियों के लिए जी एस टी फाँसी बनके आई है। पेट्रोल और अन्य खाद्य पदार्थों के दाम आसमान छू रहे है फिर भी आप मौन है। किसी के गुलाम नहीं हो, भारी बहुमत से जीते हम सबके प्रतिनिधि हो। न सही संसद मे, कम से कम एक बार अपने संसदीय दल की बैठक मे ही अपने मतदाताओं की ब्यथा को अपना स्वर दे दो
भाई आप हम सबके आदर्श हो। आप सांसद सेठ गोविन्ददास, डाकटर राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये, जार्ज फर्नांडीज, एस एम बनर्जी, अटल बिहारी वाजपेयी, चन्द्र शेखर, जयोतिरमय बसु, सोमनाथ चटर्जी जैसी महान विभूतियों के वारिस हो। आप पर देश को आगे ले जाने का महान दायित्व है लेकिन आप तो आदरणीय मनमोहन सिंह जी की तरह मौनव्रत रखे हुये हो। संसद मे केवल हाँ का बटन दबाते हो, बोलते कुछ हो नहीं?
हम आपको याद दिलायें, सेठ गोविन्ददास ने हिन्दी के मुद्दे पर अपनी ही पार्टी के खिलाफ मतदान किया था। रवि राय ने लोकसभा अध्यक्ष के नाते तत्कालीन मंत्री विद्या चरण शुक्ल को संसद के लिए अपरिचित घोषित करने का नोटिस दिया था। मधु लिमये ने लोकसभा का कार्य काल पाँच वर्ष से छ वर्ष किये जाने के विरोध मे लोकसभा से त्याग पत्र दे दिया था। चन्द्र शेखर जी ने अपनी ही पार्टी की प्रधान मंत्री को चेताया था, जयप्रकाश नारायण सन्त हैं, उनसे मत टकराओ।
भाई आप सब भी संसद सदस्य हो, कुछ बोलते क्यो नहीं? आम आदमी परेशान है, बेरोजगारी बढ रही है, छोटे मझोले उद्योग धन्धे नोट बन्दी खा गई, गाँव घर के कारोबारियों के लिए जी एस टी फाँसी बनके आई है। पेट्रोल और अन्य खाद्य पदार्थों के दाम आसमान छू रहे है फिर भी आप मौन है। किसी के गुलाम नहीं हो, भारी बहुमत से जीते हम सबके प्रतिनिधि हो। न सही संसद मे, कम से कम एक बार अपने संसदीय दल की बैठक मे ही अपने मतदाताओं की ब्यथा को अपना स्वर दे दो
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