वर्षों पहले डाक्टर राम मनोहर लोहिया ने लाखों बदनसीब और उपेक्षित रिक्शेवालों की समस्याओं पर लोकसभा में आधे घण्टे की चर्चा कराके सरकार को बताया था कि असीम शारीरिक मेहनत और निःसत्य और नाममात्र अन्न पाकर साईकिल रिक्शा चालक आधे मानव और आधे पशु का जीवन जीने के लिए विवश है। उन्नीस बीस से कम और चालीस साल से ज्यादा उम्र वाले रिक्शा चालक दो तीन सालों में या तो फेफड़ो को खोकर मर जाते है या इसी तरह की अन्य किसी असाध्य लाईलाज बीमारी का शिकार हो जाते है। आखिर यह रिक्शेवाले होते कौन है ? और आते कहाँ से है ? लोहिया ने बताया था कि देहातों के उच्चवर्णीयो की यन्त्रणाओं से त्रस्त और दरिद्र बेरोजगार लोग रिक्शा चलाने शहर मे आते है। इनका इन शहरों में न कोई रिश्तेदार होता है और न कोई रहने का ठिकाना। देर रात तक इन लोगों को रिक्शा चलाना पड़ता है। इस चर्चा पर सम्बन्धित मन्त्री महोदय ने संक्षिप्त उत्तर में कहा था कि सरकार को जानकारी है कि रिक्शे चलाने से चालक के शरीर पर कोई अवांछित परिणाम नही होता है। रिक्शेवालों की दशा पर इस चर्चा के बाद संसद ने कभी कोई चर्चा नही की और न किसी संसद सदस्य ने सरकार को रिक्शेवालों की समस्याओं पर चर्चा करने के लिए मजबूर किया है।
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