पिछले एक सप्ताह में अधिवक्ताओं के साथ पुलिस के दुव्र्यवहार के कारण हमें लगातार दो कार्य दिवसो में हड़ताल जैसा अप्रिय कदम उठाने के लिए बाध्य होना पड़ा है। हम जानते है कि हड़ताल के कारण आम वादकारी परेशान होता है परन्तु अधिवक्ताओं के विरुद्ध पुलिसिया दुर्भावना का विरोध करने के लिए हड़ताल करने के अतिरिक्त अपने पास अन्य कोई अहिंसक विकल्प भी नही है। माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने करीब पाँच दशक पूर्व अपने एक निर्णय के द्वारा उत्तर प्रदेश पुलिस को संगठित अपराधियों का सरकारी गिरोह बताया था। यह अवधारणा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी निर्णय पारित करने के समय रही होगी परन्तु दूसरी ओर यह भी मानना पड़ेगा कि अधिवक्ता और पुलिस समाज की सुख शान्ति के लिए जरूरी है और रोज रोज के टकराव से समाज में अपनी छवि पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ऐसी दशा में इस टकराव का स्थायी समाधान आवश्यक हो गया है। हम लोगों ने पुलिसिया दुव्र्यवहार के खिलाफ लम्बी हड़तालें भी की है और उस समय हड़ताल इस शर्त के साथ समाप्त की गयी है कि स्थानीय प्रशासन और पुलिस विभाग सम्बन्धित घटना की जाँच करायेगा और दोषी पुलिसकर्मियों को चिन्हित करके दण्डित किया जायेगा परन्तु हड़ताल समाप्त हो जाने और नई हड़ताल करने के बीच हम लोगों ने खुद भी जाँच के निष्कर्षो को जानने का कभी कोई प्रयास नही किया जिसके कारण कभी किसी पुलिसकर्मी पर कार्यवाही नही हुई। कार्यवाही न होने के कारण पुलिसकर्मियों का मनोबल मजबूत हुआ है और वे आज भी हम सब आम लोगों को अपनी गुलाम प्रजा और अपने आपको शासक मानते है। आम लोगों को उत्पीड़ित करके अवैध कमायी करना उनकी आदत में शुमार हो गया है। उनकी जी.डी. ब्रम्ह वाक्य है, उसमें वे जो कुछ भी लिख दें उसे ही सही मानने की बाध्यता है। किसी भी दल की सरकार ने पुलिस को पब्लिक ओरिएन्टेड सेवाप्रदाता संस्थान बनाने का प्रयास नही किया। वास्तव में पुलिसिया उत्पीड़न के विरुद्ध एक लम्बे संघर्ष की जरूरत है ताकि आम लोगों की शिकायत पर पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्यवाही सुनिश्चित करायी जा सके। स्थानीय स्तर पर अधिवक्ता पुलिस टकराव बचाने के लिए माननीय जिला जज, जिलाधीश और अधिवक्ता संगठनों के स्थानीय पदाधिकारियों के मध्य एक त्रिपक्षीय वार्ता आयोजित किया जाना समय की माँग है। इस त्रिपक्षीय वार्ता में टकराव के कारणों को चिन्हित करके समाधान का रास्ता खोजा जाना चाहिए।
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